Friday, November 27, 2009

पिघलती रही जिन्दगी

आवारगी के साथ भटकती रही जिन्दगी
रात तन्हाई में सिसकती रही जिन्दगी
किसी पथरीली राह में मोहब्बत बनकर
नरम शोलों सी पिघलती रही जिन्दगी
बोझिल कदमो से बेइरादा मंजिलों पर
कभी चली तो कभी रुकी सी रही जिन्दगी
किसी ने आवाज दी जरा जो प्यार से
उस ओर दीवानावार चलती रही जिन्दगी
दोस्तों की रहनुमाई हर मौज के साथ साथ
बस ख्वावों से ही बहलती रही जिन्दगी
उधार की चंद कालिया चुनकर भी देखो
बीच आंसुओ के भी महकती रही जिन्दगी

4 comments:

  1. पहला शेर दिल तक उतरता है
    खूबसूरत , आपकी कई रचनाये पढ़ नहीं पाया अब जल्द ही देखता हूँ '

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  2. उधार की चंद कालिया चुनकर भी देखो
    बीच आंसुओ के भी महकती रही जिन्दगी


    वाह ...बहुत खूब
    कितना कुछ निहित है इन पंक्तियों में !
    बेहद सुन्दर

    आभार सहित

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  3. बहुत खूब - संवेदनशील प्रस्तुति

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  4. बचाई क्यो सांसे जब मैं मर गया था
    खड़ा था वो  दर पे बाहे फ़ैलाये
    देता उसे क्या जब खुद लूट गया था
    फिरता था खुद से नजरें चुराए
    उसकी वफ़ा से भी जी भर गया था

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