Friday, November 27, 2009

तमाम शब


कतरा कतरा पिघलती रही तमाम शब्

वो आईने में संवरती रही तमाम शब्

निगाहें चमकती रही गहरे काजल में

चांदनी पहलु में मचलती रही तमाम शब्

सांसो को बयां करने थे कई अफ़साने

थम थम के तेज होती रही तामाम शब
इनायते करम उसका जुल्फ बिखराना

उसमे ही उलझती रही तमाम शब्

दरमियां उसके लम्हों का फासला बस
खौफे रुसवाई सताती रही तमाम शब्

हया से उसका दामन छुडा के मुस्कुराना

आर्ज़ुयें यु ही मचलती रही तमाम शब्

मेरी इल्तजा पे उसका नजर झुका देना

उसके रुखसार पे महकती रही तमाम शब्

1 comment:

  1. सुन्दर रचना , बहुत सुन्दर भाव

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