Friday, July 24, 2009

स्वप्न सजाते हुये


न गिला करना की जख्मी है कलम अपनी

ये कहकहों को समझने वाले है

क्या समझे ये दर्द तेरा ----------------------

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एक पक्षी को देखा था

कल नीड़ बनाते हुए ---तिनका तिनका एहतियात से सजाते हुए

हर पल आँखों में स्वपन सजाते हुए

फ़िर देखा उसी नीड़ को आँधियों में बिखर जाते हुए

मैं कल भी वहीं खड़ा था --------आज भी वही ठिकाना है

पर आज मेरी नजर ने देखा

उस पक्षी का एक नया ठिकाना है -------

कितना आसान था उसको रोज नए तिनके चुनना

हर तिनके पर अपना मुकद्दर लिखना ---------

हम क्यों बेबस है क्यों पर नही अपने -----

क्या हमारे सपने उन पक्षियों से कमतर है -

या होसलों में दम नही

हम भी काश पक्षी होते

रोज नए सफर पे नई किरन में खोते

रोज लिखते इबारत नए फ़साने की

फ़िर सोचता हूँ उसी नीड़ के नीचे खड़ा

क्या होगा जो कल फ़िर आंधी आयेगी

या बेरहम शिकारी का ये शिकार हो जायेगी

कितना कुछ है पर नही कुछ कही -------

सब बिरान है सबकी अपनी बगियाँ है -------


3 comments:

  1. होने को क्या नहीं हो सकता... बस नहीं होती कोई एक जोड़ी आँखें, दो थाम लेने वाली बाहें या फिर आप जो कहती हैं नहीं होता हौसला

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  2. कहा भी तो है किसी ने....ये तो अपनी ही धून में गायें....ऊँचे-ऊँचे उड़ते जाएँ....इनकी मस्ती को और बढाए...सावन की ये घटाए
    मंजिल के मतवाले ऐसे उड़ते चले हैं कहाँ...ये बनायेंगे इक नया आशियाँ...!!

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  3. अच्छा लगा
    हिंदी में बिरान शब्द नहीं है
    देशी यानी लोक भाषाओं में है
    कविता के भाव उच्च कोटि के हैं
    बधाइयां

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