Friday, June 26, 2009

गुलशन से चन्द कलियां क्या लाता


मै उसके वास्ते गुलशन से चंद कलियाँ क्या लाता

उस रोशनी के आगे कैसे कोई दूसरी शमां जलाता

मै सजदा किया करूँ वो मेरा बस हमनवां ही रहे

कैसे उसे अपने खयालो से भी दूर कर पाता

अजीज़ तो बहुत थे काफिलों की कमी न थी मगर

आज भी तेरे मुकाबिल कहाँ किसी को हूँ पाता

बहुत एतराज था नापैगामे अंदाज से अक्सर

कैसे उसके मुखातिब कोई हँसी पैगाम लिख पाता

ये रोज रोज के वही मंजर उकताते हुए सभी को

महक बहारो के झूठे स्वप्न कैसे उसे मै दिखाता

3 comments:

  1. आपकी ग़ज़ल का मतला ही जानलेवा होता है
    बाकि सभी शेर आपके भीतर की खूबसूरती को परिभाषित करते हैं.

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